डा.रमेश चंद्र शर्मा की संपत्ति – नेविल स्मिथ
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इतिहासकार रमेश चंद्र जी का 10 अगस्त को निधन हो गया,उनका जाना आगरा का उस चिंतक से बंचित हो जाना सा है जो कि अनवरत ज्ञान अर्जन और इतिहास को तथ्यात्मक जानकारियों से भरपूर करने में लगा रहा।
डा शर्मा ताजिदगी सक्रिय रहे ,जब 10 अगस्त को उन्होंने परलोक गमन किया उस समय भी वह 15अगस्त 2024 को संजय प्लेस स्थित शहीद स्मारक पर आयोजित होने जा रहे कार्यक्रमों की तैयारी के लिये शहीद स्मारक समिति की मीटिंग की अध्यक्षता कर रहे थे।
मीटिंग में उनकी तबीयत अचानक खराब हो गई। समिति की मीटिंग में ही सदस्य के रूप मे मौजूद उनके बडे पुत्र अनिल शर्मा को उन्हें लेकर अस्पताल जाना पडा लेकिन जब तक उपचार आदि संभव होता तब तक उनका प्राणांत हो चुका था।अस्पताल में डाक्टरों ने उन्हें आधिकारिक तौर पर मृत घोषित कर दिया। इस तरह अपने उम्र के पडाव के 88 वें वर्ष में पहुंचे अनवरत शोध करने वाले निस्वार्थ विरासत चिंतक को आगरा ने खो दिया।
चूंकि मेरे परिवार का डा.रमेश चन्द्र शर्मा और उनके परिवार के बीच 70 वर्षों से घनिष्ठ संबंध है, इसलिए मैं यह अपना कर्तव्य समझता हूं कि समाचार पत्रों और इस लेख के माध्यम से उनके ज्ञान और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालूं।
–नेविल स्मिथ—————————————-
अध्ययन, अध्यापन को समर्पित रहे रमेश चन्द्र शर्मा
–विरासत संरक्षण और इतिहास को सटीक बनाना जुनून था
डा. रमेश चन्द्र शर्मा 1953 से सेंट जॉन्स कॉलेज में मेरे बड़े भाई मैक्सी के सहपाठी थे। जब मैंने जनवरी 1957 में सेंटजोंस कॉलेज में प्रथम वर्ष में इंटरमीडिएट में प्रवेश लिया, तो वह इतिहास में एम.ए. कर रहे थे और प्रथम वर्ष के छात्र थे। चूँकि मेरा और उनका घर घटिया आजम खां में था, इसलिए पैदल कॉलेज जाते समय अक्सर उनका साथ हो जाता था।
मेरे मझले भाई आर बी स्मिथ उनके सहपाठी थे। वह उन्हें ‘रमेश भाई’ कह कर संबोधित करते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि शर्मा जी के हाथ में हमेशा मोटी मोटी पुस्तके होती थीं,जबकि हम सब तो रुटीन की ही किताबें-कापियां ही साथ ले जाते थे।उनके हाथ की किताबों में अक्सर वे कितबें भी होती थीं ,जो कि विश्वविद्यालय में पढाई जाने वाली किताबों से न होकर एडवांस स्टैडी और शोध उपयोगी मानी जाती थीं।
–रमेश भाई से ‘शर्मा सर’
जुलाई 1958 में जब मैंने बी.ए. (प्रथम वर्ष) में प्रवेश लिया तो प्रो.कानूनगो जो हमें इंटरमीडिएट (उस समय इंटरमीडियट डिग्री कॉलेजों में भी होता था) में इतिहास विषय पढ़ाते थे, कालेज में अपनी सेवा समाप्त करके किसी दूसरे महाविद्यालय में चले गए और उनकी जगह रमेश भाई अध्यापक नियुक्त हो गए। कॉलेज प्रशासन के द्वारा बताया गया कि वे ही हमें भारतीय इतिहास (मध्यकाल) पढ़ाएँगे। बस उसी दिन से रमेश भाई, मेरे लिये ‘शर्मा सर’ बन गये।
उस समय इतिहास की कक्षायें कॉलेज के भवन के प्रथम तल पर रूम नम्बर 9में होती थीं ,शायद अब भी वहीं होती हों। क्लास में 60 विद्यार्थी हुआ करते थे,पहली दो पंक्तियों में लडकियां बैठती थी,उनके पीछे की पंक्ति में वे छात्र बैठते थे जो कि पढाई में ज्यादा मन लगाते थे और शिक्षक के द्वारा कुछ पूछे जाने पर त्वरितता से उत्तर देने को तैयार रहते थे। पिछली पंक्तियों में वे विद्यार्थी होते थे जिन्हें पढाई लिखाई से ज्यादा शरारत करने में करने में रुचि होती थी। इस प्रकार के छात्र केवल अपनी अटेंडेस दर्ज करवाने और सहपाठियों खास कर छात्राओं पर छींटाकशी करने के उद्धेश्य से ही क्लास में आते थे। उन्हें शांत रखने का कार्य आसान नहीं था और कुछ पुराने अध्यापकों को इन्हें पढाने का अनुभव था , इनमें से ज्यादातर का मानना था कि ये न तो खुद पढते हैं और नहीं लगनशील विद्यार्थियों को पढ़ाने देते थे।
–बदला माहौल
ऐसे वातावरण में भी डा शर्मा का काम औसत दर्जे से कही स्तरीय था। उनकी आवाज में कठोरता या कहें ध्रढता इसकी बजह थी। हो सकता है कि पिछली पंक्ति में बैठने वालों में से कुछ तक यह नहीं पहुंच पाती हो किंतु जो पढना चाहते थे वे क्लास में खामोशी के साथ बैठने लगे और पढाने के ढंग के कारण लैक्चरों में रुचि भी लेने लगे।कुछ ही दिनों में क्लास शांति से चलने लगी ।
उन दिनों इतिहास विभाग की अध्यक्ष अंग्रेज महिला सुश्री गिब्स थीं।अपने रहे अनुभवों के आधार पर उनके लिये स्टूडेंटों के व्यवहार में यह बदलाव आश्यर्चजनक किंतु सुखकर था।दरअसल सुश्री गिब्स की आवाज ज्यादा तेज नहीं थी,संवाद शिष्टाचार उनकी आदत मे था ।संभवत: उनकी आवाज आरंभिक पंक्तियों तक ही सही प्रकार से पहुंच पाती थी । इस कारण पिछली पंक्ति में बैठे विद्यार्थी पूरे समय आपस में बातें करते रहते थे ।अंग्रेज, विभाग अध्यक्ष के द्वारा नये प्राध्यापक का सकारात्मक आंकलन उस समय की एक बडी उपलब्धि मानी गयी थी ।
–प्री ग्रज्युएट और हाईस्कूल फेल
उस समय के शैक्षणिक माहौल का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि कई कई अटैम्ट क्लास पास करने को मिलते थे। लेकिन इस पर भी जब स्टूडैट पास नहीं हो पाते थे ,तो कॉलेज छोड देते थे और घर पर नेम प्लेट लगाते समय उसमें प्री ग्रेजुएट या बी ए फेल लगाना भी अपनी उपलब्धि मानते थे।
अनेक स्टूडेंट जो कई प्रयासों के बावजूद हाईस्कूल भी पास नहीं कर पाये, उनमें से अनेक ने अपने घर की नेम प्लेट में ‘हाईस्कूल फेल’ लिखवा देते थे। इसके पीछे उनका और उनके घरवालों का तर्क रहता था कि कम से कम यह तो लोगों को मालूम पड ही जायेगा कि ‘हाईस्कूल तक पढाई लिखाई की हुई है’ । इनलोगों का मानना था कि पास फेल करना तो ईश्वर के हाथ मे होता है।
वैसे विद्यार्थियों के फेल होने का कारण सामान्यत: गणित और इंग्लिश विषय होते थे। मुझे याद है कि पढाना शुरू करने के बाद से ही डा शर्मा मेघावी छात्रों के लिये जहां प्रेरक थे,वहीं उदंडियों ने भी उन्हें शिष्ट शिक्षक के रूप में स्वीकार्य कर लिया था। किताबों में डूबे रहने वाले डा शर्मा की एक विशिष्ट छवि जो उन दिनों बनी ,वह हमेशा कायम रही। उनके द्वारा पढी जाने वाली किताबों में विश्वविद्यालय के कोर्सों से संबधित रुटीन किताबों के अलावा इतिहास विषय से संबधित नई से नई किताबे और प्रकाशित शोध प्रबंध शामिल रहने का सिलसिला जीवन पर्यंत बना रहा।
–डा शर्मा और टॉमस स्मिथ की अन्वेषण टीम
मेरे पिता स्व.टामस स्मिथ पत्रकार ,जिन्हें कि आगरा के पत्रकार मेरी तरह से ‘ पापा’ के नाम पुकारते थे का स्मृति-ग्रन्थ 1997 में प्रकाशित किया गया तो, डा शर्मा का इसमें महत्वपूर्ण सहयोग और योगदान रहा।उनकी मेहनत और गहन अध्ययन का ही परिणाम है कि ग्रंथ में प्रकाशित अनेक लेख खूब चर्चा मे रहे और इतिहास के शोधार्थियों लिये आज भी मार्गदर्शी माने गये।
–आत्म विश्वास से भरपूर हो गया
मझे याद है कि डा शर्मा ने अंग्रेज गवर्नर जर्नल लार्ड चार्ल्स जॉन कैनिंग,( लेख में जनरल व वासराय नाम स्पष्ट नहीं है/लॉर्ड किन )पर शोध-प्रबन्ध तैयार किया तो उसे लेकर मेरे पास आये और मुझसे कहा कि यह अंग्रेजी भाषा में लिखा हुआ है, उसे पढ़कर उसकी भाषा में जो परिवर्तन या सुधार हो, उसे में बिना हिचक कर दूं। डा शर्मा का यह आग्रह मेरे लिये बहुत ही गर्व अनुभूति करवाने वाला था,अपने दौर का एक अति प्रतिष्ठित शिक्षक अपने एक पूर्व छात्र के पास आये और अपने शोध लेख में सुधारने को कहे यह मेरे लिये आत्म विश्वास बढाने वाली और कभी न भूलने वाली घटना थी। मैंने उस कार्य को सहर्ष किया, जैसा मैं अन्य शेधार्थियों के शोध ग्रंथे में करता रहा हूं,लेकिन इस मामले में अनुभूति अन्यों की तुलन में थोडी फर्क थी।
–शोध कार्यों में मौलिकता
शुरू में तो मुझे पी एच डी करने में ज्यादा रुचि नहीं थी लेकिन समय के साथ उच्च शिक्षा में पी एच डी का महत्व समय के साथ बढता ही गया। तो मैरे न चाहते हुए भी जब पी एच डी करना जरूरी हो गया तो मैंने शेध प्रबंध तैयार कर लिया। इसके बावजूद अब भी मानता हूं कि , शोध प्रबंधों में से कम ही अपवाद स्वरूप ऐसे होते है,जो नई जानकारियों देने वाले हों, अधिकांश में पूरानी व अन्य शोध ग्रंथों में दी जा चुकी जानकारियों को ही नये ढंग से प्रस्तुत कर दिया जाता है। बाद में जब मुझ पर पी एच डी की करने का दबाब और अधिक बढा तो न चाहते हुए भी मैंने शोध-प्रबन्ध पूरा किया और खुद ही दो महीने में ही उसे टाइप कर डाक्टरेट भी प्राप्त करली।लेकिन यह समूची प्रक्रिया मेंरे लिये कई नये अनुभवों से भरपूर था।
मैं आज भी मानता हूं कि शोध करके पी एच डी करलेने भर से कुछ सम्मान भले ही बढ जाता हो किंतु जरूरी नहीं कि इससे विद्वता भी बढ ही जाती हो। मेरा मानना है कि सन्1960 के बाद से पी एच डी करने और करवाने के प्रति लोगों में जो रुझान अभूतपूर्व तेजी के साथ बढा है, और इसमें अनवरतता जारी है। लेकिन इस नये चलन में भी शोध कर्त्ताओं में डा शर्मा जैसे भी अपने आप में मिसाल हैं, जिनका हर शोध प्रबंध मौलिकता और नई जानकारियों से भरपूरता के लिये जाना ताजा है।अब तो पी एच डी का स्तर बहुत ही गिर गया है, घर बैठे ही शोध कार्य करने के अनेक उदहारण मिल जाते हैं।
–परीक्षाओं की कम होती पवित्रता
परीक्षओं की स्थिति पर गहन चर्चा करना ज्यादा प्रासंगिक नहीं मानता लेकिन व्यक्तिगत रूप से मानता हूं कि स्वयं छात्रों और उनके अविभावकों की जोड तोड क्षमता से 70से 80 प्रतिशत तक अंकों की जुगाड हो जाती हैं। परीक्षओं का उल्लेख कर शायद मैं अपने मूल विषय से भटक गया हूं,लेकिन डा शर्मा के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है।जिन्होंने अपने शैक्षिक काल में ही नहीं उसके बाद भी छात्रो खास कर शोधार्थियों की भरपूर सहायता की, मुझे याद नहीं कि कभी किसी के साथ अपने ज्ञान के भंडार को साझा करने में पक्षपात या भेदभाव किया हो।
अब तो पी एच डी करवाने वालों पर सहायता के एवज में शोधार्थियों से धन मांगने की परपाटी प्रचलित हो गइ मानी जाती है, किंतु डा शर्मा इस मामले में अपवाद और मिसाल थे, मुझे याद नहीं कि किसी ने उनके बारे में यह कहने की जुर्रत की हो कि पी एच डी के एवज में उन्होने धन मांगा हो। यही कारण है कि उनके पास जो भी आया ज्ञान के भंडार में से भरपूरता से लेकर और श्रद्धा भाव से नत मस्तक होकर गया ।
–शोध साहित्य की समृद्धि में योगदान
प्रो शर्मा ने सेवानिवृत होने से पूर्व तक 20 शोधकताओं के शौवन्प्रवन्धों का निर्देन किया, वैसे कुल 75 शोध पत्र जीवन काल में प्रकाशित किये। उनकी एक लोकप्रिय पुस्तक ‘आगरा-मध्यकाली व आधुनिक’ शोध सदंर्भों में भी उल्लेख की जाती है।
मैं अपनी स्मृतियों को टटोलते हुए याद करता हूं कि 1963 में मेरी नियुक्त बलबंत राजपूत कॉलेज में शिक्षक के रूप में हुई थी,जब उन्हे इस बारे में बताया तो वह बेहद खुश हुए थे।मुझे कल की सी ही बात लगती है ,जबकि मैं उन्हें अपने घर के सामने के मार्ग से होकर गुजरते देखा करता था।सामान्यत: वह प्रख्यात हिन्दी साहित्यकार और बृज के वार्ता साहित्य के वैज्ञानिक अध्ययन कर्त्ता डा हरिहर नाथ टंडन के यहां आते जाते थे।टंडन सहाब सैंटजोंस कॉलेज के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे इस लिये डा शर्मा का उनके यहां आना जाना सामान्य ही था,लेकिन बाद मे जब हरिहरि नाथ जी नहीं रहे तो भी उनके पुत्र डा.संजय टंडन के पास आना जाना बना रहा है।संभवत: इसका कारण डा टंडन में भी अपने पिता के समान ही बृज मंडल के लोक साहित्य को आगे बढाने में रुचि का होना रहा होगा।
–इतिहास अन्वेषण के अभियान
स्मिथ बताते हैं कि उनके पिता स्व.टॉमस स्मिथ जो कि अपने समय के प्रख्यात पत्रकार और आगरा के इतिहास पर अन्वेषणात्मक रिपोर्टें व लेख लिखते रहने के लिये विशिष्ट पहचान रखते थे, के प्रति जिज्ञासू होकर डा शर्मा ने उनसे मिलने की इच्छा जताई।इस पर घर पास पास एक ही मौहल्ले में होने के कारण ,मैने कहा कि आप जब चाहे आ जायें।पिताजी मिलनसार प्रवृत्ति के हैं आपसे मिलकर उन्हें बेहद खुशी होगी। इस पर रमेशजी ने घर आना शुरू कर दिया ,एक बार जो यह सिलसिला शुरू हुआ बढता ही चला गया। डा रमेश को पिताजी ‘रमेश बाबू’ कहते थे,जबकि पिताजी को डा रमेश मेरी तरह ही ‘पापा जी’ कहते थे।दरअसल पिताजी तब तक पहले परिवार के बीच ,फिर पत्रकारों के बीच और बाद में तो आगरा के जनजीवन में ही जगत ‘पापा’ के सम्मान से नवाजे जाना शुरू हो चुके थे।
टॉमस स्मिथ घुमक्कडी में विश्वास रखने वाले रिपोर्टर थे, कुछ कुछ नया खोज निकालना उनकी प्रवृत्ति थी,डा शर्मा से मिलने के बाद यह और बढ गई।वैसे तो अनेक अखबारों में कुछ न कुछ नया छपता रहा किंतु कलकत्ता और दिल्ली से प्रकाशित ‘स्टेट्समैन’ में उनके लेख और रिपोर्टिंग को पढने वाला एक बडा पाठक वर्ग ही बन गया था।
–हिस्ट्री की रिपोर्टों में सटीकता
डा शर्मा के कारण रिपोर्टों में हिस्ट्री का सटीकता से समावेश होने लगा,संदर्भों को अधिक प्रासंगिकता के साथ प्रस्तुत किया जाने लगा।चूंकि वह इंटरनेट युग तो था नहीं और नहीं कम्प्यूटर प्रचलन में थे,इस लिये एक एक रैफ्रेंस तलाशना बेहद मेहनत भरा काम था।साथ ही रिपोर्ट या लेख को टाइप करना भी कम चुनौती भरा नहीं था।डेश,सेमी कालम, इन्वर्टिड कामा,अंडर लाइन ,फुटनोट आदि मे जरा सी भी गलती हो जाये तो फिर पूरी शीट ही रैमिंगटन मशीन पर टाइप करनी पड जाती थी।
नेविल स्मिथ बताते हैं कि जहां टॉमस सहाब मौन्यूमेंट साइटों पर जाकर जानकारियां एकत्र करते और बीजकों को पढते वहीं डा शर्मा लोकेशन का निरीक्षण करने के साथ ही लोगों से मिल कर स्थल विशेष के संबध में लोकोक्तियां आदि संग्रहित करते ।अगर स्थल विशेष के संबध में कोई पुस्तक आदि होती तो उसे भी ढूढ कर स्मिथ सहाब का सहयोग करते थे।
–समय के गर्त में समाये इतिहास को दी ताजगी
इतिहासकार और रिपोर्टर की इस टीम ने अधिकांश वे जानकारियां जुटाईं,जिन्हें समय चक्र काफी पीछे छोड चुका था, या कहें कि भुलाया ही जा चुका था।हाथरस रोड,जगनेर रोड,ग्वालियर रोड और मथुरा रोड सहित कितनी अन्य रोडों की यात्रायें कीं और पगडंडिया तय कर स्थलीय खोजबीन की।सरकारी साधन और निजि वाहनों की कमी को नजर अंदाज कर इन अन्वेशण यात्राओं में उ प्र रोडबेज की बसों का ही भरपूर उपयोग किया गया।तीस साल पूर्व तक यू पी रोडबेज और राज्य की सडकों की जो हालत थी, उनको याद कर के तो ये यात्राये लगभग सहासिक अभियान सा ही लगती हैं।
— पारवारिक स्मृतियां
स्मिथ बताते हैं कि जहाँ तक उनके और डा शर्मा के पारवारिक रिश्तों की बात है, जब से ये शुरू हुए तब से बने चलते रहे हैं। उनके बच्चे मेरे सामने ही पैदा हुए ।उनके बेटे अनिल व बेटी निथि मेरे बच्चों के के समान है व मुझे ‘चाचाजी’ कर कर सम्बोधित करते हैं, जो मेरे लिए गर्व की बात है। हर पारिवाकि कार्यक्रम में मुझे व मेरी पत्नी को बुलाया जाता रहा। जब 15 साल पूर्व मुझे बेंगलूर जाना पडा तो मैं उनके बडे बेट अनिल के पास ही ठहरा,जो उस समय बेंगलूर में किसी कार्पोरेट कंपनी के लिये कार्यरत थे और बढिया फ्लैट में रहते थे। यूं यादों का लम्बा सिलसिला है मेरे पिता स्व टामस स्मिथ और डा शर्मा के पिता स्व.अम्बिका चरण शर्मा की गहरी मित्रता थी,वे हम उम्र थे, 25 साल की उम्र में शुरू हुई इस दोस्ती का क्रम लगातार जारी रहा,दोनों ही पालीवाल पार्क की वृद्धजनों की मण्डली के चर्चित सदस्य रहे।अब तो मैं खुद ही मैं कुछ ही दिनों में 85 वर्ष की आयु प्राप्त करने वाला हूं।
डा शर्मा मुझसे तीन वर्ष वरिष्ठ थे। मैंने उन्हें हमेशा अपना शिक्षक माना और वही सम्मान दिया ।
उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करना इस लेख का मकसद मानता हूं,जो कि एक लेखक और पत्रकार के रूप में मेरा अपरोक्ष कर्त्तव्य भी है।